राकेश अचल पहुंचे सैन फ्रांसिस्को, विशेष रिपोर्ट
दुनिया में कोविड से सबसे ज्यादा जन हानि झेलने वाले अमेरिका में अब भी सब कुछ मामूल पर नहीं है। हालाँकि यहां लोग दुस्साहसी हैं और खुलकर जिंदगी जीते नजर आ रहे हैं। तमाम एहतियात बरतते हुए आखिर मैं 29 जनवरी को अमेरिका आ पहुंचा। दिल्ली के अंतर्राष्ट्रीय इंदिरा गांधी हवाई अड्डे से बोइंग में सवार होते समय मुझे लगा कि विमान खाली होगा, लेकिन मेरा अनुमान गलत निकला। दिल्ली से सेन फ्रांस्सिको के लिए जाने वाला मै अकेला नहीं था। सैकड़ों लोग थे।
दिल्ली से इस सोलह घंटे की सीधी उड़ान भरने वाले बोईंग विमान में मुश्किल से दो-चार सीटें खाली थीं । जितने भी मुसाफिर थे, सबके सब कोरोना निगेटिव्ह की जांच रिपोर्ट लेकर आए थे। बावजूद इसके हम जैसे इक्के-दुक्के डरपोंक लोग भी थे, जो फेस शील्ड और पीपीई किट भी पहने थे। हमें संयोग से विमान में सोशल डिस्टेंसिग के हिसाब से बीच की सीट खाली मिल गई इसलिए सफर में आसानी हुई। लेकिन डेढ़ दिन तक एक ही तरह कि योग मुद्रा में बैठना कितना कठिन काम है आप कल्पना कर सकते हैं।
अमेरिका में एक धारणा है कि कोरोना अधिकतर विमान यात्रा या बाजार से आपको पकड़ता है, इसलिए तय किया था कि विमान में न पानी पिएंगे और न कुछ खाएंगे, लेकिन जब देखा कि 99 फीसदी लोग निर्भीक होकर खाने-पीने के लिए कमर कसकर आए हैं तो हमने भी जान निकालकर हथेली पर रख ली और विमान में वितरण की जाने वाली खाद्य सामग्री ले ली । हाँ, हम पति-पत्नी लगातार दस्ताने बदलते रहे और सेनेटाइजर का बेरहमी से इस्तेमाल करते रहे। हमें ऐसा करते देख मुमकिन है कि कुछ सह यात्रियों को अजूबा आग रहा हो।
कोराना का आतंक आदमी से क्या कुछ नहीं कराता, यदि आपको बता दिया जाए तो आप हंसी के मारे लोटपोट हो सकते हैं। दरअसल हमने तय किया था कि हम विमान के टायलेट का इस्तेमाल नहीं करेंगे। हमने विमानतल पर ही वाशरूम में जाकर एडल्ट डायपर पहन लिए थे। लेकिन बुरा हो आदतों का, डायपर देखकर लघुशंका इतनी आतंकित हो गयी कि आने को तैयार ही नहीं हुई। जब सात घंटे से अधिक बीत गए तो तय किया कि एक बार फिर जान हथेली पर रखी जाए। हम साहस कर विमान के टायलेट में जा घुसे न। प्राकृतिक जरूरतों का नियमन असम्भव है। हमें डायपर धारण नहीं करना चाहिए था।
बहरहाल, अमेरिका के तमाम खूबसूरत शहरों में से एक सेन फ्रांसिस्को के हवाई अड्डे पर उतरते ही हम सुरक्षा जाँच के बाद एक बार फिर सीधे वाशरूम की और भागे। सोलह घंटे में सिर्फ दो मर्तबा लघुशंका जाना किसी साधक के बूते का ही काम है। सैन फ्रांसिस्को कितना बढ़िया नाम है लेकिन बाजार ने उसे एसएफओ कर दिया है। नामों के साथ छेड़छाड़ मुझे अच्छी नहीं लगती। लेकिन दुनिया है कि मानती ही नहीं।
हमें सैन फ्रांसिस्को से अगले पड़ाव की और फिर से दो घंटे की हवाई यात्रा करना थी। ये अमेरिका की घरेलू उड़ान थी। इसमें विमान भी छोटा था लेकिन एकदम खाली। विमान की पूरी क्षमता का मुश्किल से बीस फीसदी हिस्सा भरा था। पता किया तो जानकारी मिली कि लोग कोरोना के कारण विमान यात्रा से बच रहे हैं। दिल्ली से भी केवल हम भारतीय ही ज्यादा संख्या में विमान से अमेरिका आए थे। हम शायद ज्यादा निर्भीक यात्री हैं दुनिया के। जो भी हो, हम उन्नीस घंटे की यात्रा कर सकुशल अपने गंतव्य तक सकुशल पहुँच गए हैं। ये हमारी चौथी सबसे आतंकित करने वाली अमरीका यात्रा रही। बच्चों के बीच पहुँचकर सारी थकान और भय रफूचक्कर हो गया है। अब देह की घड़ी के नियमन का काम चल रहा है। हवा में चालीस हजार फीट की ऊंचाई पर उड़ते-उड़ते तक चुकी देह दया की पात्र है।
अमेरिका के समय से कदमताल करने का काम आसान नहीं है। अभी जब यहां के लोग डिनर के लिए तैयारी करते हैं, तब हमें हाजत का मन होता है और जब ये लोग जागते हैं तब हमें नींद आती है। इसीलिए चाहकर भी लिखना-पढ़ना व्यवस्थित नहीं हो पाया है। हाँ कुछ गजलें जरूर आदतन लिखी हैं,जो आपको जल्द पढ़ने को मिलेंगी।
(अचल मध्यप्रदेश के वरिष्ठ पत्रकार हैंं।)